Monday, September 17, 2012

[CROMA] Water Pollution

 

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क्या इस बार भी त्योहारों पर जल प्रदूषण होगा
नवभारत टाइम्स | Sep 17, 2012, 04.00AM IST
सुभाष गाताडे।।
त्योहारों का मौसम आ गया है। गणेश पूजा काफी नजदीक है। फिर दुर्गापूजा और दीपावली मनाई जाएगी। इन पर्वों की समाप्ति के बाद हमारे तालाबों, नदियों और समुद्र की क्या स्थिति होगी? आज की तारीख में अधिकतर मूर्तियां प्लास्टर आफ पैरिस से बनी होती हैं, जो पानी में नहीं घुलता है। पीओपी बनाने में पारा और लेड इस्तेमाल किया जाता है। ऐसे पानी का सेवन करने से इंसान को कैंसर हो सकता है या उसका दिमागी विकास भी रुक सकता है। दूसरी तरफ पानी का विषाक्त होना मछलियों और दूसरे प्राणियों के लिए मौत की सौगात बन कर आता है।

कुछ साल पहले गणेश पूजा के बाद मुंबई के जुहू में समुद्र किनारे लाखों मछलियां मरी पाई गई थीं। तब हम सभी इस संकट से रूबरू हुए थे। स्वयं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने भी उत्सवों के दिनों में नदियों के 'दम घुटने' की बात की पुष्टि की है। उसका अध्ययन नवरात्रों के बाद दिल्ली में यमुना के प्रदूषण पर केंद्रित था। बोर्ड के निष्कर्षों के मुताबिक सामान्य काल में पानी में पारे की मात्रा लगभग न के बराबर होती है, लेकिन उत्सवों के काल में वह अचानक बढ़ जाती है। यहां तक कि क्रोमियम, तांबा, निकल, जस्ता, लोहा और आसेर्निक जैसे भारी धातुओं का पानी में अनुपात भी बढ़ जाता है।

राजधानी के जिन-जिन इलाकों में मूर्तियां बहाई जाती हैं, वहां के पानी के सैंपलों को लेकर अध्ययन करने के बाद बोर्ड ने पाया कि मूर्तियां बहाने से पानी की चालकता (कन्डक्टिविटी) बढ़ जाती है। वहां ठोस पदार्थ बड़ी मात्रा में जमा हो जाते हैं। उसका निष्कर्ष था कि मूर्तियां बहाने के 'कर्मकाण्ड' से नदी को कभी न भरने लायक नुकसान हो रहा है और प्रदूषण फैल रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने इस संदर्भ में दायर एक जनहित याचिका को लेकर 14 अक्टूबर 2003 को एक फैसला सुनाया। जब उसने पाया कि फैसले पर अमल नहीं हो रहा है तो उसने एक निगरानी समिति गठित की जिसने वर्ष 2005 में सभी राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों को निर्देश दिए। अब हर साल होता यही है कि राज्यों के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ऐसे त्योहारों के पहले नगरपालिकाओं आदि को एक रुटीन परिपत्र भेज कर रस्म अदायगी करते हैं। जमीनी स्तर पर कोई फर्क नहीं पड़ता।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के तत्वावधान में फरवरी 2009 में बनी एक कमेटी ने मूर्ति विसर्जन को लेकर कुछ अहम सुझाव दिए। उसके मुताबिक मूर्तियों पर ऐसे केमिकल से बने रंगों के इस्तेमाल पर पाबंदी लगनी चाहिए, जो जहरीले हों और नॉन बायोडिग्रेडेबल हों अर्थात घुलनशील न हों। उसने कहा कि मूर्तियों के निर्माण में सिर्फ प्राकृतिक तथा पानी में घुलनशील रंग ही इस्तेमाल किए जाएं। प्लास्टर आफ पैरिस के बजाय माटी की मूर्ति बनाने को प्रोत्साहित किया जाए। पानी में बहाने के पहले मूर्तियों पर पड़े फूल, कपड़े और थर्मोकोल आदि अलग किए जाएं। यह भी सुझाव दिया गया कि ऐसे कृत्रिम तालाबनुमा गड्ढे बना दिए जाएं जिनमें आसानी से विसर्जन हो सके ताकि बहाई गई मूर्तियां समूचे सार्वजनिक जलाशय को प्रदूषित न करें।

यह एक अच्छी बात है कि इस मामले में लोगों में जागरूकता आने लगी है। कुछ साल पहले फतेहपुर, कानपुर, रायबरेली और हरदोई समेत उत्तर प्रदेश के कई जिलों से देवी प्रतिमाओं के भूविसर्जन के समाचार मिले थे। फतेहपुर के नौबस्ता घाट में निषादों ने गंगा मैली न करने की सौगंध ले रखी थी, जिसके चलते वहां पहुंची 112 प्रतिमाएं गंगा तट की रेत में विसर्जित की गई थीं। कानपुर में चालीस दुर्गा प्रतिमाओं और सैकड़ों लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियों का भू-विसर्जन किया गया। देश के अलग-अलग हिस्सों में ऐसे पर्यावरण प्रेमी समूह भी खड़े हो रहे हैं, जो ऐसे उत्सवों को 'हरित' अंदाज में मनाए जाने के लिए प्रयत्नशील हैं। कुछ समय पहले हैदराबाद के किसी ग्रीनकॉर्प्स नामक समूह की चर्चा आई थी, जिसके कार्यकर्ता अलग-अलग स्कूलों में जाकर बच्चों को इसके बारे में प्रशिक्षित करते दिखे थे। काश! देश का हर निवासी कम से कम आनेवाली पीढि़यों के भविष्य की खातिर त्योहारों में पर्यावरणकी रक्षा का ख्याल रखे।
 


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