Subject: VIKRAMI SAMVAT-2069--23 MARCH 2012
ऐतिहासिक महत्व:
1) सृष्टि रचना का पहला दिन : आज से एक अरब 97 करोड़, 39 लाख 49 हजार 110 वर्ष पूर्व इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्मा जी ने जगत की रचना इसी दिन की थी।
2) प्रभु राम का राज्याभिषेक दिवस : प्रभु राम ने भी इसी दिन को लंका विजय के बाद अयोध्या आने के बाद राज्याभिषेक के लिये चुना।
3) नवरात्र स्थापना : शक्ति और भक्ति के नौ दिन अर्थात्, नवरात्र स्थापना का पहला दिन यही है। प्रभु राम के जन्मदिन रामनवमी से पूर्व नौ दिन उत्सव मनाने का प्रथम दिन।
4) गुरू अंगददेव जी का प्रकटोत्सव : सिख परंपरा के द्वितीय गुरू का जन्मदिवस।
5) आर्य समाज स्थापना दिवस : समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने हेतु स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को आर्य समाज स्थापना दिवस के रूप में चुना।
6) संत झूलेलाल जन्म दिवस : सिंध प्रान्त के प्रसिध्द समाज रक्षक वरूणावतार संत झूलेलाल इसी दिन प्रकट हुए।
7) डा0 हैडगेबार जन्म दिवस : राष्ट्रीय स्वयं सेवक संध के संस्थापक डा0 केशव राव बलीराम हैडगेबार का जन्मदिवस।
8)शालिवाहन संवत्सर का प्रारंभ दिवस : विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना।
9) युगाब्द संवत्सर का प्रथम दिन : 5111 वर्ष पूर्व युधिष्ठिर का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ।
प्राकृतिक महत्व: पतझड की समाप्ति के बाद वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है। शरद ऋतु के प्रस्थान व ग्रीष्म के आगमन से पूर्व वसंत अपने चरम पर होता है। फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है।
आघ्यात्मिक महत्व :
हमारे ऋषि-मुनियों ने इस दिन के आध्यात्मिक महत्व के कारण ही वर्ष प्रतिपदा से ही नौ दिन तक शुध्द-सात्विक जीवन जीकर शक्ति की आराधना तथा निर्धन व दीन दुखियों की सेवा हेतु हमें प्रेरित किया। प्रात: काल यज्ञ, दिन में विविध प्रकार के भंडारे कर भूखों को भोजन तथा सायं-रात्रि शक्ति की उपासना का विधान है। असंख्य भक्तजन तो पूरे नौ दिन तक बिना कोई अन्न ग्रहण कर वर्षभर के लिए एक असीम शक्ति का संचय करते हैं। अष्टमी या नवमीं के दिन मां दुर्गा के रूप नौ कन्याओं व एक लांगुरा (किशोर) का पूजन कर आदर पूर्वक भोजन करा दक्षिणा दी जाती है।
वैज्ञानिक महत्व :
विश्व में सौर मण्डल के ग्रहों व नक्षत्रों की चाल व निरन्तर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन,महीने, साल और उनके सूक्ष्मतम भाग आधारित होते हैं। इसमें खगोलीय पिण्डों की गति को आधार बनाया गया है। हमारे मनीषियों ने पूरे भचक्र अर्थात 360 डिग्री को 12 बराबर भागों में बांटा जिसे राशि कहा गया। प्रत्येक राशि तीस डिग्री की होती है जिनमें पहली का नाम मेष है। एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। पूरे भचक्र को 27 नक्षत्रों में बांटा गया। एक नक्षत्र 13 डिग्री 20 मिनिट का होता है तथा प्रत्येक नक्षत्र को पुन: 4 चरणों में बांटा गया है जिसका एक चरण 3 डिग्री 20 मिनिट का होता है। जन्म के समय जो राशि पूर्व दिशा में होती है उसे लग्न कहा जाता है। इसी वैज्ञानिक और गणितीय आधार पर विश्व की प्राचीनतम कालगणना की स्थापना हुई।
एक जनवरी से प्रारम्भ होने वाली काल गणना को हम ईस्वी सन् के नाम से जानते हैं जिसका सम्बन्ध ईसाई जगत् व ईसा मसीह से है। इसे रोम के सम्राट जूलियस सीजर द्वारा ईसा के जन्म के तीन वर्ष बाद प्रचलन में लाया गया। भारत में ईस्वी सम्वत् का प्रचलन अग्रेंजी शासकों ने 1752 में किया। अधिकांश राष्ट्रो के ईसाई होने और अग्रेंजों के विश्वव्यापी प्रभुत्व के कारण ही इसे विश्व के अनेक देशों ने अपनाया। 1752 से पहले ईस्वी सन् 25 मार्च से शुरू होता था किन्तु 18वीं सदी से इसकी शुरूआत एक जनवरी से होने लगी। ईस्वी कलेण्डर के महीनों के नाम में प्रथम छ: माह यानि जनवरी से जून रोमनदेवताओं (जोनस, मार्स व मया इत्यादि) के नाम पर हैं। जुलाई और अगस्त रोम के सम्राट जूलियस सीजर तथा उनके पौत्र आगस्टस के नाम पर तथा सितम्बर से दिसम्बर तक रोमन संवत् के मासों के आधार पर रखे गये। जुलाई और अगस्त, क्योंकि सम्राटों के नाम पर थे इसलिए, दोनों ही इकत्तीस दिनों के माने गये आखिर क्या आधार है इस काल गणना का?
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