Thursday, December 20, 2012

[CROMA] CIVIC SENSE

 




कोशिश से ही मजबूत होगा सिविक सेंस 

 
नवभारत टाइम्स | Dec 21, 2012, 04.00AM IST
लाजपत राय सभरवाल॥ 

हममें से कोई जब विदेश यात्रा से लौटता है और वहां की साफ-सफाई व बेहतर व्यवस्था की तारीफ करता है, तो मन में सवाल उठता है कि क्या हमारे देश में भी वैसा स्वच्छ वातावरण नहीं बनाया जा सकता? अरस्तू ने कहा था, 'नागरिकता के नियमों और सामाजिक न्याय के बिना मनुष्य सभी जीवों से अधिक खतरनाक है।' इसका मतलब यह है कि यदि कोई सामाजिक व्यवस्था न हो और मनुष्य उसके नियंत्रण में न रहे तो उसका जीवन जंगली जीवों की तरह अराजक हो सकता है। मनुष्य ने जो भी उन्नति की है, वह समाज में रह कर ही की है। इसलिए अगर हम समाज-हितकारी नियमों का अपने आप पालन नहीं करते और उसकी तरक्की में सहयोग देना अपना कर्त्तव्य नहीं समझते, तो हम समाज में रहने के योग्य नहीं हैं।

हाल के वर्षों में नागरिकता की भावना में काफी कमी आई है और हम सामाजिक हित के बजाय व्यक्तिगत लाभ को अधिक महत्व देने लगे हैं। हम दूसरों के हित-अहित का ख्याल नहीं रखते और अपने लाभ या खुशी के लिए समाज विरोधी व्यवहार करने तक को तैयार हो जाते हैं। कहने का अर्थ यह नहीं कि हमें अपना हित छोड़ कर केवल समाज का हित करना चाहिए। हम कम से कम ऐसे कार्यों से बचे रहें, जो प्रत्येक मनुष्य के लिए असुविधाजनक अथवा हानिकारक सिद्ध होते हैं। सार्वजनिक स्थानों को गंदा करना हमारी आदत में शामिल है।
हम हाट-बाजार, गली, मंदिर, आश्रम, मुसाफिरखाना, प्लैटफॉर्म, रेल के डिब्बे, मोटर-बस, धर्मशाला, होटल, सार्वजनिक पार्क अथवा मनोरंजन के स्थानों को आदतन गंदा करते रहते हैं। हम आते या बैठते समय तो अपने लिए साफ जगह ढूंढेंगे पर चलते समय इस बात की जरा भी चिंता नहीं करेंगे कि हम दूसरों के लिए इसे कितनी गंदी हालत में छोड़े जा रहे हैं। लोग सार्वजनिक जगहों पर प्राय: छिलके, जूठे दोने, कुल्हड़, फटे कागज आदि छोड़कर चल देते हैं। रेल के डिब्बों में बैठे हुए अनेक लोग तो गाड़ी के फर्श पर हाथ धोकर, थूक कर सब तरह के छिलके और जूठन फैला कर इतनी ज्यादा गंदगी कर देते है कि पास बैठने वाले का वहां टिकना कठिन हो जाता है।


सवेरे सैर पर जाते हुए घर से कूड़े की थैली लेकर किसी निर्जन स्थान या सार्वजनिक स्थान पर फेंकना तो आम बात है। जबकि नगरपालिकाओं की तरफ से बड़े- बड़े सुंदर कूड़ेदान रखे जाते है, पर हम इसकी परवाह न करके हर जगह कूड़ा फेंकते हैं। ऊपर की मंजिलों में रहने वाले आम तौर से कहीं से कूड़ा, गंदा पानी और फलों के छिलके आदि नीचे फेंक देते हैं। वे इस बात की जरा भी फिक्र नहीं करते कि ये चीजें किसी के ऊपर पड़ जाएंगी या उनके कपड़ों को खराब कर देंगी।

दिल्ली में आजकल भंडारों के आयोजन की जैसे प्रतियोगिता सी चल पड़ी है। शहर की मुख्य सड़कों के किनारे पटरी पर भंडारे के लिए भोजन आदि पकाया जाता है और फिर वितरण के बाद उन सड़कों पर प्लेटों का अंबार लग जाता है। देखा गया है कि हमारे जन प्रतिनिधि भी ऐसे कामों को प्रोत्साहित ही करते हैं। वे शायद वोट बैंक के लिए ऐसा करते होंगे। अगर तीर्थ स्थलों की दशा का निरीक्षण किया जाए तो उनकी शुद्धता और धार्मिकता का उपहास होता ही नजर जाता है। एक ओर तो लोग उन्हें परम पवित्र और मुक्ति देने वाले पुण्य-स्थल के रूप में सम्मान देते हैं और दूसरी ओर उनके आसपास जबर्दस्त गंदगी फैलाते हैं। क्या ऐसे धर्मभीरु लोगों को ईश्वर का भय नहीं सताता?

हमें याद रखना होगा कि सफाई तभी रह सकती है जब हम अपना स्वभाव बदलें। स्वच्छता हमारी जागरूकता एवं सुरुचिपूर्ण दृष्टिकोण को दर्शाती है। एक नागरिक के रूप में अपने वातावरण को साफ-सुथरा रखना हमारा कर्त्तव्य है। इससे यह पता चलता है कि हम दूसरों को लेकर कितने संवेदनशील हैं। अगर हर व्यक्ति एक-दूसरे का ख्याल रखने लगे तो समाज की कई समस्याएं अपने आप दूर हो जाएंगी। इसलिए हम नागरिकता के नियमों का व्यापक रूप से प्रचार करें, उनका खुद भी पालन करें और दूसरों से भी पालन कराने की कोशिश करें।
 

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